Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


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मुंशीजी ने ऐसे अनुरक्त भाव से यह यश गान किया कि प्रेमशंकर गद्गद हो गये। वह दयाशंकर को लोभी, कुटिल, स्वार्थी समझते थे कि जिसके अत्याचारों के इलाके में हाहाकार मचा हुआ था। जो कुल का द्रोही, कुपुत्र और व्यभिचारी था, जिसने अपनी विलासिता और विषयवासना और धुन में माता-पिता, भाई-बहन यहाँ तक कि अपनी पत्नी से मुँह फेर लिया था। उनकी दृष्टि में वह एक बेशर्म, पतित हृदय शून्य आदमी था। यह गुणानुवाद सुनकर उन्हें अपनी संकीर्णता पर बहुत खेद हुआ। वह मन में अपना तिरस्कार करने लगे। उन्हें फिर आत्मिक यन्त्रणा मिली– हा! मुझमे कितना अहंकार है। मैं कितनी जल्द भूल जाता हूँ कि यह विराट जगत् अनन्त ज्योति से प्रकाशमय हो रहा है। इसका एक-एक परमाणु उसी ज्योति से आलोकित है। यहाँ किसी मनुष्य को नीचा या पतित समझना ऐसा पाप है जिसका प्रायश्चित नहीं। मुंशी जी से पूछा– डॉक्टरों ने कुछ तशखीस नहीं की?

मुंशीजी ने उपेक्षाभाव से कहा– डॉक्टरों की कुछ न पूछिए, कोई कुछ बताता है, कोई कुछ। या तो उन्हें खुद ही इल्म नहीं, यह गौर से देखते ही नहीं उन्हें तो अपनी फीस से काम है। आइये, अन्दर चले आइये, यही मकान है।

प्रेमशंकर अन्दर गये तो कानिस्टेबिलों की भीड़ लगी हुई थी। कोई रो रहा था, कोई उदास, कोई मलिन-मुख खड़ा था, कोई पंखा झलता था। कमरे में सन्नाटा था। प्रेमशंकर को देखते ही सभी ने सलाम किया और कातर नेत्रों से उनकी ओर देखने लगे। दयाशंकर चारपाई पर पड़े थे, चेहरा पीला हो गया था और शरीर सूखकर काँटा हो गया था। मानों किसी हरे-भरे खेत को टिड्डियों ने चर लिया हो। आँखें बन्द थीं, माथे पर पसीने की बूँदें पड़ी हुई थीं और श्वास-क्रिया में एक चिन्ताजनक शिथिलता थी। प्रेमशंकर यह शोकमय दृश्य देखकर तड़प उठे, चारपाई के निकट जा कर दयाशंकर के माथे पर हाथ रखा और बोले– भैया?

दयाशंकर ने आँखें खोलीं और प्रेमशंकर को गौर से देखा, मानो किसी भूली हुई सूरत को याद करने की चेष्टा कर रहे हैं। तब बड़े शान्तिभाव से बोले– तुम हो प्रेमशंकर? खूब आये। तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा थी। कई बार तुमसे मिलने का इरादा किया, पर शर्म के मारे हिम्मत न पड़ी। लाला जी तो नहीं आये? उनसे भी एक बार भेंट हो जाती तो अच्छा होता, न जाने फिर दर्शन हों या न हों।

प्रेम– वह आने को तैयार थे, पर मैंने उन्हें रोक दिया। मुझे तुम्हारी हालत मालूम न थी।

दया– अच्छा किया। इतनी दूर एक्के पर आने में उन्हें कष्ट होता। वह मेरा मुँह न देखें वही अच्छा है। मुझे देखकर कौन उनकी छाती हुसलेगी?

यह कहकर वह चुप हो गये, ज्यादा बोलने की शक्ति न थी, दम ले कर बोले– क्यों प्रेम, संसार से मुझ-सा अभागा और भी कोई होगा? यह सब मेरे ही कर्मों का फल है। मैं ही वंश का द्रोही हूँ। मैं क्या जानता था कि पापी के पापों का दण्ड इतना बड़ा होता है। मुझे अगर किसी की कुछ मुहब्बत थी तो दोनों लड़कों की। मेरे पापों का भैरव बनकर उन...

उनकी आँखों में आँसू बहने लगे। मूर्च्छा-सी आ गयी। आध घंटे तक इतनी अचेत दशा में पड़े रहे। साँस प्रतिक्षण धीमी होती जाती थी। प्रेमशंकर पछता रहे थे, यह हाल मुझे पहले न मालूम हुआ नहीं तो डॉ. प्रियनाथ को साथ लेता आता। यहाँ तार घर तो है। क्यों न उन्हें तार दे दूँ। वह इसे मेरा काम समझ कर फीस न लेंगे, यही अड़चन है। यही सही, पर उनको बुलाना जरूर चाहिए।

यह सोचकर उन्होंने तार लिखना शुरू किया कि सहसा डॉ. प्रियनाथ ने कमरे में कदम रखा। प्रेमशंकर ने चकित होकर एक बार उनकी ओर देखा और तब उनके गले से लिपट गये और कुंठित स्वर में बोले– आइए, भाई साहब, अब मुझे विश्वास हो गया कि ईश्वर दीनों की विनय सुनता है। आपके पास यह तार भेज रहा था। इसकी जान बचाइये।

प्रियनाथ ने अश्वासन देते हुए कहा– आप घबड़ाइए नहीं, मैं अभी देखता हूँ। क्या करूँ, मुझे पहले किसी ने खबर न दी। इस इलाके में बुखार का जोर है। मैं कई गाँवों का चक्कर लगाता हुआ थाने के सामने से गुजरा तो मुंशी जी ने मुझे यह हाल बतलाया।

यह कहकर डॉक्टर साहब ने हैंडबेग से एक यंत्र निकाल कर दयाशंकर की छाती में लगाया और खूब ध्यान से निरीक्षण कर के बोले– फेफड़ों पर बलगम आ गया है, लेकिन चिन्ता की कोई बात नहीं। मैं दवा देता हूँ। ईश्वर ने चाहा तो शाम तक जरूर असर होगा।

डॉक्टर साहब ने दवा पिलायी और वहीं कुर्सी पर बैठ गये। प्रेमशंकर ने कहा– मैं शाम तक आपको न छोड़ूँगा।

प्रियनाथ ने मुस्करा कर कहा– आप मुझे भगाये भी तो न जाऊँगा। यह मेरे पुराने दोस्त हैं। इनकी बदौलत मैंने हजारों रुपये उड़ाये हैं।

एक वृद्ध चौकीदार ने कहा– हुजूर, इनका अच्छा कर देव। और तो नहीं, मुदा हम सब जने आपन एक-एक तलब आपके नजर कर देहैं।

प्रियनाथ हँसकर बोले– मैं लोगों को इतने सस्ते न छोड़ूँगा। तुम्हें वचन देना पड़ेगा कि अब किसी गरीब को न सतायेंगे, किसी से जबरदस्ती बेगार न लेंगे और जिसका सौदा लेंगे उसको उचित दाम देंगे।

चौंकीदार– भला सरकार, हमारा गुजर-बसर कैसे होगा? हमारे भी तो बाल-बच्चे हैं, दस-पन्द्रह रुपयों में क्या होता है?

प्रिय– तो अपने हाकिमों से तरक्की करने के लिए क्यों नहीं कहते? सब लोग मिलकर जाओ और अर्ज-मारूज करो। तुम लोग प्रजा की रक्षा के लिए नौकर हो, उन्हें सताने के लिए नहीं। अवकाश के समय कोई दूसरा काम किया करो, जिससे आमदमी बढ़े। रोज दो-तीन घंटे कोई काम कर लिया करो तो। १०-१२ रुपये की मजदूरी हो सकती है।

चौकीदार– भला ऐसा कौन काम है हुजूर?

प्रिय– काम बहुत है, हाँ शर्म छोड़नी पड़ेगी। इस भाव को दिल से निकाल देना पड़ेगा कि हम कानिस्टेबिल हैं तो अपने हाथों से मिहनत कैसे करें? सच्ची मेहनत की कमाई में अन्याय और जुल्म की कमाई से कहीं ज्यादा बरकत होती है।

मुंशी जी बोले– हुजूर, इस बारे में सरकारी कायदे बड़े सख्त हैं। पुलिस के मुलाजिम को कोई दूसरा काम करने का मजाल नहीं है। अगर हम लोग कोई काम करने लगें तो निकाल दिये जायें।

प्रिय– यह आपकी गलती है। आपको फुर्सत के वक्त कपड़े बुनने या सूत कातने या कपड़े सीने से कोई नहीं रोक सकता। हाँ, सरकारी काम में हर्ज न होना चाहिए। आप लोगों को अपनी हालत हाकिमों से कहनी चाहिए।

मुंशी– हजूर, कोई सुननेवाला भी तो हो? हमारा रिआया को लूटना हुक्काम की निगाह में इतना बड़ा जुर्म है, जितना कुछ अर्ज-मारूज करना। फौरन साजिश और गरोहबन्दी का इलजाम लग जाय।

प्रिय– इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि आप लोग कोई हुनर सीख कर आजादी से रोजी कमाते। मामूली कारीगर भी आप लोगों से ज्यादा कमा लेता है।

मुंशी– हुजूर, यह तकदीर का मुआमला है। जिसके मुकद्दर में गुलामी लिखी हो, वह आजाद कैसे हो सकता है।

दोपहर हो गयी थी, प्रियनाथ ने दूसरी खुराक दवा दी। इतने में महाराज ने आकर कहा– सरकार, रसोई तैयार है, भोजन कर लीजिए। प्रेमशंकर यहाँ से उठना न चाहते थे, लेकिन प्रियनाथ ने उन्हें इत्मीनान दिला कर कहा– चाहे अभी जाहिर न हो, पर पहली खुराक का कुछ न कुछ असर हुआ है। आप देख लीजिएगा शाम तक यह होश-हवास की बातें करने लगेंगे।

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